Saturday, February 19, 2011

कुछ मेरी वफ़ादारी का इनआम दिया जाए

कुछ मेरी वफ़ादारी का इनआम दिया जाये
इल्ज़ाम ही देना है तो इल्ज़ाम दिया जाये

ये आपकी महफ़िल है तो फिर कुफ़्र है इनकार
ये आपकी ख़्वाहिश है तो फिर जाम दिया जाये

तिरशूल कि तक्सीम अगर जुर्म नहीं है
तिरशूल बनाने का हमें काम दिया जाये

कुछ फ़िरक़ापरस्तों के गले बैठ रहे हैं
सरकार ! इन्हें रोग़ने- बादाम दिया जाये.
/ मुनव्वर राना

Hi

Presently busy in Surat for a job work.Would soon come in full fledged arena.
President
Dilip Kumar Jha
Dastak Foundation

Wednesday, November 17, 2010

कोशिश करने वालों की -- रचनाकार: हरिवंशराय बच्चन

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

Friday, October 23, 2009

क्या हम इतना गिर गए हैं...

आखिरकार आज फिर याद आए गए अशफाक उल्लाह। गाहे बगाहे ही सही याद तो आए। ये क्या कम हैं। ज्ञात हो कि 22 अक्टूबर को अशफाक का जन्म दिन था । सन 1900 में यूपी के एक गांव में उनका जन्म हुआ था। जन्म दिन था तो कौन उसमें क्या करें । यहां तक कि छोटी छोटी बात पर चिलपों मचाने वाले न्यूज चैनल भी इस मुद्दे पर चुप थे । एक नहीं सारे चैनल वाले ही सुबह से विधानसभा के परिणाम में जो व्यस्त थे। इसलिए किसी को सुध ही नहीं रहा होगा। क्यो सही कहा हैं ना ।
लेकिन जरा सोचिए क्या हम सब इतने स्वार्थी हो गए हैं कि इस महान क्रांतिकारी को भूल गए। शायद हां भी शायद ना भी । लेकिन जो हुआ सो हुआ । ये अक्षमनीय हैं । बिल्कुल भी नाकाबिले बर्दाश्त हैं । मैं भी पथभ्रष्ट भीड़ का हिस्सा हूं। जानता हूं पर जान के भी कुछ नहीं कर सकता हूं। इसमें अगर मुझे कोई फ्रस्टू बोले तो ठीक हैं । हां मैं ऐसा ही हूं । और अगर मैं ऐसा हू तो आप मेरा क्या कर लीजिएगा ।
अब जरा ध्यान कीजिए इस महान क्रातिंकारी का योगदान । काकोरी कांड तो आपको याद होगा । शायद आप लोग बिल्कुल भी नहीं भूले होगें। अगर भूल गए हैं तो शर्म हैं... आप पर और इस देश के तमाम जनता पर। जो आज मजे से अपनी जिन्दगी बिता रहे हैं। अगर ये कहा जाए कि उन्होंने हमारे कल के लिए अपना आज बर्बाद किया था । वे चाहते तो मजे से जिन्दगी बिता सकते थे । अरे भाई वे पढ़ने में कमजोर थोड़े ही ना थे । जब वो अपने एक कमीने रिश्तेदार के दोगलई से अंग्रेजों के हाथ में आए थे । तब वे भारत में आजादी के मिशन को धन की होने वाली कमी से दूर करने के लिए विदेश जा रहे थे।
शर्म आए जहां पर ऐसे रिश्तेदार मौजूद हो जो किसी को नेक काम करने से रोकें ।
खैर क्या कीजिएगा ई हां का सिस्टम ही ऐसा हैं।
आखिर कार अशफाक उल्लाह को इस कृत्घन राष्ट्र के इस अदने से आदमी का सलाम...

Wednesday, October 14, 2009

मिलावटी दुनिया में हम...

मिलावटी दुनिया में हम...
दिवाली आने को हैं । औऱ अच्छे अच्छे लोगों का दिवाला निकलने को तैयार हैं। एक तरफ महंगाई और दूसरी तरफ मिलावट दोनों ने आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया हैं। लेकिन क्या करे दुनिया में आए हैं तो जीना ही पड़ेगा। आज के इस मिलावटी उदारीकरण के दौर में आम आदमी की हालत बद से बदतर हो गयी हैं। पर क्या करें मजबूरी हैं । कर भी क्या सकते हैं । किसी ने कहा हैं जिन्दगी जीने के दो तरीके हैं । पहला जिम्मेदारी को समझे और इसे उठा के अपने अनूकूल माहौल में जीए। वहीं दूसरा तरीका इसके ठीक उलट हैं। दूसरे तरीके में जो हो रहा हैं उसको होनें दे,जैसा चल रहा हैं उसको चलने दे । यहीं हैं दूसरी जीने के नीति । जिसे हर आदमी अपनाना चाहता हैं और जीना चाहता हैं । खैर ये सही भी हैं । अगर हम इतिहास के पन्ने पर नजर दौड़ाए तो यहीं बात निकल कर सामने आती हैं कि सरवाइल ऑफ द फिटेस्ट । बहरहाल जीने का दूसरा तरीका आसान और सरल हैं। क्योकिं इस पद्धति में आप ज्यादा टेंशन नहीं लेते हैं। और हर हाल में जिन्दगी गुजार लेते हैं। लेकिन जिन्दगी जीने का जो पहला तरीका उसमें टेंशन भी हैं । और फिक्र भी। और तौ और पहली तरीके आपको समयानूकूल बदलाव करनें की गुजाइंश नही होती हैं क्योकिं आप खुद ही बदलना नहीं चाहते हैं।
आज के इस मिलावटी दौर में किसी चीज पर भरोसा करना खतरे खाली नहीं हैं। प्यार में मिलावट,खाने में मिलावट तो पहले से ही चला आ रहा हैं, यहां तक कि अब मां बाप में भी मिलावट देखन को मिल रहा है,पत्नी में मिलावट,खून में मिलावट(लखनऊ खून रैकेट एक सटीक उदाहरण हैं),पइसा में मिलावट, हर जगह मिलावट का ही जमाना हैं भाई। ऐसा इसलिए हैं क्योकिं हम ऐसे ही हैं । और ये ऐसे ही चलता रहेगा । क्योकि ऐसा हम चाहते हैं । वैसे भी समाज में हम आप जैसे ही लोग रहते हैं। मिलावटी जमाने शुद्ध सामान की बात ना करें । ऐसा ही हैं और भविष्य में ऐसा ही रहेगा.....

Tuesday, October 13, 2009

किशोर दा...

किशोर दा...
खइके पान बनारस वाला...चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना...चला जाता हूं किसी के धुन में ... अगर किसी से पूछा जाए कि इन गीतों में क्या समानता हैं...तो आपका क्या जवाब होगा...जी हां बिल्कुल ठीक पहचाना कि इन सब गीतों को एक ही गायक ने गाया हैं...जी जनाब इनका नाम किशोर कुमार हैं...लगभग सब सुपरस्टार की आवाज बनने वाले किशोर दा का आज पुण्यतिथि हैं...बॉलीवुड के सरताज गायक किसी परिचय से महरूम नहीं हैं ...पर दुनिया की बानगी देखिए बहुत कमतरे लोग को ये याद होगा...खैर ये दुनिया ही ऐसा हैं...किशोर दा के बारे मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि अगर उन्होनें अमिताभ के लिए गाया तो अमिताभ की आवाजा में रम गए...वहीं देव साहब के लिए गाया तो उनकी आवाज में रम गए...राजेश खन्ना के गाना गाया तो लगा कि काका खुद ही गाना गा रहें हैं...शायद ही कोई ऐसा गायक होगा जो बहुमुखी प्रतिभा का धनी हो...चाहे निर्देशन हो या फिर निर्माता...हर जगह किशोर दा नें हाथ आजमाया...और सफल हुए...यही नहीं दादा ने बेजोड़ अभिनय भी किया...आखिर कौन भूल सकता हैं पड़ोसन के मास्टर जी को अपने शिष्य को प्यार करना सिखलाता हैं...बहरहाल एक इंसान में अभिनय की क्षमता,गायकी में बेजोड़, निर्देशन भी अव्वल दर्जे का...इतनी सारी प्रतिभा के धनी किशोर दा वाकई में बिरले थे...उनके जैसा ना कोई था और ना ही कोई आएगा...
किशोर दा के पुण्यतिथि पर उनको भावभीनी श्रद्धाजंलि...

Monday, October 12, 2009

अमिताभ साहब और हम लोग...

अमिताभ साहब और हम लोग...
सदी के महानायक का आज 67 साल के हो गए । देश भर में हर जगह बिग बी के प्रशंसकों ने उनका जन्मदिन मनाया। दिन भर न्यूजरूम में एफटीपी पर एक से एक खबर देखने को मिला। वाकई ये अमिताभ साहब ही हैं ,जिन्हें लोगों नें भगवान बना दिया हैं । जहां तक मुझे लगता हैं । ना उन से पहले कोई ऐसा अभिनेता था ना होगा । जिसे लोग इताना प्यार और दुलार करेगें । शायद ही कोई ऐसा अभिनेता होगा जिसे लोग भगवान की तरह पूजेगें । शायद ही कोई ऐसा होगा जो पूरा बॉलीवुड का इतिहास ही बदल देगा। इतिहास गवाह हैं कि कैसे बच्चन साहब ने पूरे बॉलीवुड का दिशा ही बदल दिया हैं।
बहरहाल उनके करिश्मा को कोई मिलने पर ही जान सकता हैं । रूपहले पर्दा पर एंग्री यंग मैन लगने वाले बिग बी बहुत ही सौम्य और शांत हैं। ऐसा मुझे लगा हैं। देश भर के खुशनसीबों में से मैं भी एक शख्स हू जो अमिताभ साहब से रूबरू हुआ हैं। लखनऊ में तकरीबन पांच बरस पहले अमित सर एक कार्यक्रम में शिरकत करने आए थे। जहां मुझे उनसे बात करने और मिलने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ । वो 30 सेकेंड की कुशलक्षेम वाली बातचीत आज भी मुझे याद हैं।
उस पूरे कार्यक्रम जहां जया हँसती नजर आ रहीं थी । वहीं हमेशा की तरह अमिताभ बहुत शांत और गंभीर थे । मैं और मेरे कुछ पत्रकार साथी प्रेस दीर्घा में थे । कुछ देर बाद हम लोग भी उनके पास आ गए। फिर शुरू हुआ वो दौर जिसका इंतजार मेरे साथ मेरे हर साथी को था। उस समय हमारे भगवान या यूं कहे की सब कुछ वो ही थे । हम लोगों ने हर तरफ से उनको घेर लिया था । जिससे अमित जी तनीक भी असहज नहीं हुए। और मजेदार बात यह रहीं कि उनके सुरक्षा में मुस्तैद रहने वाले ब्लैक कैट ने भी हम लोगों को खुले सांड की तरह छोड़ दिया था । थोड़ी देर में जया जी भी वहां आ गयी । वहीं अमर जी पहले से वहां मौजूद थे । उनके साथ और भी लोग थे । बातचीत बहुत मजेदार ढ़ंग से हो रही थी । अमित जी पर हम लोग लगातार सवालों का बंब फेंक रहे थे । और वे हर सवालों के बंब को ऐसे कैच कर रहे थे । जैसे मानों फूल हो। जिंदगी के बमुश्किल दस मिनट के ये क्षण की याद आज लगभग पांच साल बीतने के बाद भी मेरे जेहन में हैं। बातचीत की सिलसिला चल ही रहा था कि अमर सिंह बोले के अब हम लोगों को आराम करने के लिए चलना चाहिए क्योकिं सुबह निकलना भी हैं। मैनें अपनी घड़ी पर नजर डाली तो सुबह के 2 बजे चुके थे । रात की बेला सुबह के बेले में जाने को आतुर थी ।
इसके बाद बिग बी हमलोगों से दोबारा मिलने का वादा करके चल दिए । अपने मित्र के शहर में । वहीं बिग बी हमलोगों को मुंबई का न्यौता देना भी नहीं भूलें। जिसे हम लोगों ने ऐसे स्वीकार किया जैसे अभी हीं दौड़ कर हम लोग मुंबई पहुंच जाएगें। बहरहाल क्षण भर की वो मुलाकात आज भी तरोताजा हैं।
सदी के महानायक को उनके 67 वें जन्मदिन पर हार्दिक बधाई। भगवान करे वे नित नये आयाम को छुए...

Tuesday, September 29, 2009

बेचारे स्ट्रिंगरो का दर्द...

बेचारे स्ट्रिंगरो का दर्द...
अभी कुछ दिन पूर्व मेरे एक लेख को पढ़के मेरे मित्र का फोन आया । उन्होंने मेरे लेख की तो तारीफ की ही साथ ही साथ मुझे स्ट्रिंगरो पर कुछ लिखने को कहा । लगभग दस दिन बीत जाने के बाद मुझे आज इसके लिए समय मिला पाया हैं । क्या करू ऑफिस की किचकिच और नाइट शिफ्ट होने के कारण समय बहुत कम मिल पा रहा हैं । आज थोड़ा बहुत समय मिला हैं तो सोचा कुछ लिख दूं। इसलिए लिखने बैठ गया । सबसे पहले तो मैं उनसे माफी चाहूंगा । फिर कुछ लिखना चाहूगां ।
अगर आप किसी आम आदमी से पूछे कि न्यूज़ चैनल की रीढ़ कौन होता हैं । तो जनाब एक ही उत्तर मिलेगा कि पर्दे पर न्यूज़ पढ़ने वाली एंकर । और ज्ञान झाड़ने वाले रिपोर्टर । ये ठीक भी हैं । क्योकिं अगर कोई चैनल देखता हैं तो उसमें एंकर का भी अहम रोल होता हैं । वहीं दूसरी तरफ अगर आप किसी न्यूज चैनल वाले से पूछेंगे तो निश्चित तौर पर अधिकतर लोग स्ट्रिंगर को चैनल की रीढ़ बताएगें । और ये सहीं भी हैं। बेचारे यही बिना पैसा के दिन रात एक कर के न्यूज़ भेजते हैं । कुछ चैनल तो इन्हीं स्ट्रिंगर के सहारे चल रहे हैं। मै यहां नाम नहीं लेना चाहूगां । आगे बढ़ने से पहले समझा जाए कि आखिर स्ट्रिंगर का फंडा क्य़ा हैं और इनका अहम रोल क्यों होता हैं । और कौन होते हैं ये लोग ।
स्ट्रिंगर किसी भी न्यूज़ चैनल के संवाददाता ही होते हैं । और ठीक वैसे ही काम करते हैं । मोटे तौर पर समझा जाए तो । बस कमी होती हैं कि वे चैनल के पे रोल पर नहीं होते । यानी उनकी सैलरी तय नही होती हैं । केवल उनको अपने काम के अनुसार पैसा दिया जाता हैं । मसलन न्यूज भेजने के लिए इतना पैसा । फोनो के लिए इतना पैसा । वगैरह वगैरह । साफ हैं जितना काम उतना दाम ।
लेकिन इनकी हालत बहुत दयनीय होती हैं । जाहिर हैं इनको महीना बीत जाने के बाद भी पैसा के लिए तरसना पड़ता हैं । कई बार तो एक महीना क्या ना जाने कितने महीने इंतजार करना पड़ता हैं । इसका हिसाब तभी मिल पाता हैं । जब पैसा आता हैं । चैनल जितना स्ट्रिंगर को जितना दोहन कर पाता हैं । उतना करने का कोशिश करता हैं । बाजार में ऐसे तमाम चैनल हैं जिसमें काम कर रहे स्ट्रिंगर को महीनों से पैसा नही मिला हैं । लेकिन क्या कर सकते हैं । बाजार कि पॉलिसी एक दम साफ हैं "SURVIVAL OF THE FITTEST सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट " । ये फंडा खाली मीडिया कंपनी ही नहीं हर जगह हर कंपनी में लागू होता हैं ।
स्ट्रिंगर के दर्द को खाली स्ट्रिंगर ही समझ सकता हैं । दिन रात मेहनत कर के अगर महीना के आखिर में पैसा ना मिले तो उस समय की तकलीफ और मनोदशा केवल वो आदमी ही बता सकता हैं । जो कि भुक्तभोगी हैं । लेकिन हमेशा ये रीत रहीं हैं कि कमजोरों का ही शोषण किया जाता हैं । क्या आपने सुना हैं कि किसी ताकतवर का शोषण हुआ हैं । मेर हिसाब से बिल्कुल भी नहीं । मैं बस इतना ही कहूंगा इन स्ट्रिंगर पर चैनल को ध्यान देना चाहिए जिससे कि कम से कम ये चैन की सांस ले सके । और समय पर वेतन मिल सके जिससे इनको भी काम करने में मजा आए ना कि शोषण होने से किसी गलत रास्ता को अख्तियार कर लें । और खराब मनोदशा के कारण कोई गलत न्यूज़ ना भेज दें । जिससे चैनल को न्यूज़ भी उत्तम दर्जे की मिले ।

Monday, September 21, 2009

वो यादें जो भूलती नहीं हैं...

अभी ऑफिस जाने के लिए घर से निकला तो कुछ यादें जो कि तकरीबन 20 साल पुरानी हैं अनायास ही ताजा हो गयी ... ये यादें भी कमाल की होती हैं जो अक्सर याद आती हैं ...तभी तो इसको यादे बोला जाता हैं ... बहरहाल यादों का काम हैं आना सो आ गयी... दरअसल मेरे घर के पास एक स्टेडियम हैं ... आपको बता दू कि नौएडा में खाली एक स्टेडियम हैं जो सेक्टर 21 में ...ठीक उसके सामने मेरा घर हैं...बहरहाल चूकिं दुर्गापूजा चल रहा हैं...इसलिए सुनसान रहने वाला ये स्टेडियम में आज कल रौनक रहती हैं...आजकल दुर्गा पूजा के उपल्क्षय में रामलीला का आयोजन किया जा रहा हैं...
खैर पुराने मुद्दे पर वापस लौटते हैं...मेरे घर के पास चौडा मोड़ नामक एक चौराहा हैं...जिसके पास आकर मैनें देखा कि एक सज्जन जिनकी उम्र लगभग साठ साल से ज्यादा होगी...एक छोटे से बच्चे जिसकी उम्र पांच छव बरस होगा...उनके साथ मेला देखने आया था...वो लड़का मेला देखने आया था इस पर मैं इसलिए कंफीडेंट क्योकिं उस बच्चे के हाथ में गुब्बारा था...जिसे देखकर मैं क्या हर कोई कह सकता हैं कि दोनों मेला देखने आये थे...चूकिं त्योहार का सीजन हैं और बच्चों में इसको लेकर खासा कौतूहल रहता हैं...सो चल पड़े अपने प्यारे दादा जी के साथ मेला घूमने...और दादा जी भी अपने दुलारे मुन्ना को निकल पड़े लेके रावण को दिखाने के लिए...
हाथ में गुब्बारा और दादा जी का साथ सीधे मुझे ले गया अपने बचपन के दिनों में जब मैं भी अपने बाबा के साथ दुर्गाघर ( हमारे गांव का मंदिर जहां मेला लगता हैं ) हाथ पकड़कर घूमने जाता था...खैर मैं जानता हूं वो दिन अब मेरे लिए खाली ख्वाब हैं...और मैं ये भी जानता हूं कि ख्वाब कभी पूरा नहीं होता हैं...इसी याद को समर्पित हैं ये कुछ पंक्ति..........

वो यादे जिसे मैं बचपन में ही गांव में छोड़ आया था...
वो यादे जो मेरी जिन्दगी का सबसे उत्तम समय था ...
वो यादे जिसे दोबारा जीने की चाह मुझे हमेशा रहती हैं ...
वो यादे जो मैं कभी दोबारा नहीं जी सकता हूं...
वो यादे जिसे याद करके मेरी आंखे आज भी नम हो जाती हैं ...
वो यादे जो शायद किसी के पास हो सहेजने के लिए...
वो यादे जिसे याद रखने के अलावा कोई भी विकल्प नही हैं आज ...
वो यादे जो मेरे मरने के बाद भी नही मिट सकती हैं ...
वो यादे आज अनायास ही याद आ गयी हैं मुझे...

Saturday, September 19, 2009

शशि थरूर ही क्यों ?

आज रात की शिफ्ट करने के बाद जब घर पहुंचा तो मन में ख्याल आया कि क्या शशि थरूर के मुद्दे को इतना उछालना सही हैं...अगले ही पल सोचा नही ये बिल्कुल सही है...आखिर ये मसला देश के करोड़ों हम जैसे भेड़ बकरी से जुड़ा हैं...अगर अपनी बात करू तो मैं अभी तक बमुश्किल गरीब रथ में भी सफर नहीं किया हैं...मेरे जैसे अदने से पत्रकार के लिए तो एसी में सफर करना भी सौभाग्य की बात हैं...और विमान में सफर करना एक दिवास्वप्न हैं...लेकिन शशि सर ने तो अपनी बात का इजहार किय़ा है...उन लोगों का क्या जो बिना बोले सेकेंड क्लास वालो को हीन भावना से देखते हैं...अगर आप गौर करे तो चाहे बस हो या फिर ट्रेन या फिर सड़क ही क्यो ना हो...हर जगह हम जैसे लोगों को मवेशी ही बनना पड़ता हैं...खैर य़े कहानी नयी नहीं हैं...परम पूज्यनीय बापू का किस्सा तो आप लोग को पता ही होगा...कि कैसे उनको ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया था...ये तो मात्र एक उदाहरण है...वही आप गौर कीजिए तो सड़क पर कार सवार को वर्दी वाले गुंडे नही रोकते हैं...मगर दुपहिया सवार को तुरंत रोक दिया जाता हैं...क्या आपने सोचा हैं कि ऐसा क्यूं हैं...क्यों हम जैसे लोगों को ही चूसा जाता हैं...ऐसे में मुझे एक अर्थशास्त्री की बात याद आती हैं कि हमेशा शक्तिशाली लोग ही जीतते हैं...अंग्रेजी में मैनेजमेंट की कक्षा में अक्सर पढ़ाया जाता हैं कि "SURVIVAL OF THE FITTEST"...मैने भी इसको मैनेजमेंट की कक्षा में खूब पढ़ा था...और इसका अब प्रायोगिक रूप से इस्तेमाल भी कर रहा हूं...
बहरहाल पुराने मुद्दे पर वापस लौटते ही हैं...हम खाली शशि सर की ही क्यों बात कर रहे हैं...और किसी नेता का क्यों नही...फारूख अब्दुल्ला,गुलाम नबी,लालू जी, रामविलास बाबू, ऐसे ना जाने कितने नेता हैं जो इस फेहरिस्त में शामिल हैं...अफसरशाह लोग की बात तो आप छोड़ हीं दे...उनको तो इसी खातिर जाना जाता हैं...उन पर क्यो नही हगामा किया जाता हैं...क्यो नही उनपर कोई कार्रवाई की जाती हैं...इसका उत्तर ना तो आपके पास हैं नहीं मेरे पास...
इसी जवाब के चाह में...
दिलीप